सामाजिक-साम्प्रदायिक कोरोना से जूझता देश – डॉ. उदित रा

सामाजिक-साम्प्रदायिक कोरोना से जूझता देश – डॉ. उदित रा
04 May 2020

सामाजिक अन्याय की चरम स्थिति: उत्तर प्रदेश में दलितों पर बढ़ता उत्पीड़न

भारत ही नही पूरी दुनिया कोरोना महामारी से जूझ रही है| उसी समय मंथन भी चल रहा है कि कोरोना महामारी के उबरनेके बाद दुनिया में बदलाव आएगा | दुनिया के तमाम देशों ने अगर इस तरह कि चर्चा हो रही है तो कोई वजह जरुर है| भारत के परिपेक्ष्य में कोई बदलाव के आसार नहीं दीखते|

दुनिया में ऐसा कोई एक देश भी नहीं है जब इस महामारी में सब एक जुट होकर ना लडे हों. भारत में ऐसा देखने को नही मिल रहा है| दलितों मुसलमानों के ऊपर हमले तेज हुए इस तरह से सामजिक एवं साम्प्रदायिक कोरोना का जहरीला असर कम नही हुआ बल्कि बढे ही हैं|

लोक डाउन का फायदा उठाते हुए उत्तरप्रदेश में दलितों के ऊपर उत्पीडन काफी बढे हैं| मई महीने कि शुरुआत में ही उत्तरप्रदेश, अयोध्या के हैदरगंज थाना क्षेत्र के कोरो राघवपुर गांव में एक दलित युवक कि हत्या कर दी गयी थी| उन्नाव में दलित लड़की का अपहरण के बाद रेप और हत्या कि घटना को कौन भूल सकता है|

जाने ऐसी कितनी घटनाएं यूपी में रोज घाट रही हैं| कुछ मिडिया के संज्ञान में आता है तो कुछ घटनाओं को मिडिया द्वारा दबा दिया जाता है ताकि लोगों के मन में राम राज्य का भ्रम बना रहे| अलग अलग संस्थाओं द्वारा समय समय पर किये जा रहे अध्ययन बताते हैं कि अधिकाँश मामले थाने तक पहुचने ही नहीं दिया जाता और अगर पहुच भी जाय तो सत्ता के रसूख से मामले को दबाया जाता है| एनसीआरबी के प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक़ राज्य में प्रतिदिन औसतन दलित उत्पीडन के 20 मामले दर्ज किये जा रहे हैं|

दलितों के खिलाफ उत्पीडन के मामले में अकेले यूपी कि हिस्सेदारी 17 फीसदी है| सिर्फ इतना ही नहीं उत्तरप्रदेश में दलितों कि हत्या कि डर पूरे देश में दलितों कि हत्या दर से दुगुनी है| हाल के दिनों में यूपी के जिलों यथा कुशीनगर, प्रतापगढ़ ,मुज्ज़फर नगर और गोरखपुर जिले दलित और मुस्लिम उत्पीडन कि राजधानी के बतौर उभरे हैं|

मीडिया की भूमिका और सामाजिक चेतना की कमी: कोरोना संकट के दौरान

जब पूरा देश सोशल मिडिया हो या , प्रिंट या इलेक्ट्रॉनिक मिडिया या अन्य कोई माध्यम लोगों कि जान बचाने का इलाज आदि में जुटे हुए हों, तो उसका फायदा उठाकर सरकार साम्प्रदायिक कोरोना को बढाने का काम कर रही है| मुस्लिम समाज के नागरिकता कानून के खिलाफ सक्रीय रहे हैं उनसे बदला लिया जा रहा ह | जामिया अलुमनी एसोसियेशन के अध्यक्ष शिफा उर रहमान, मीरा हैदर और उमर खालिद समेत दर्ज़नो सामाजिक कार्यकार्ताओं कि गिरफ्तारी हुयी और ये सिलसिला अबतक जारी है| लखनऊ में दीवारों पर सामजिक कर्कार्ताओं कि तस्वीर दुर्दांत अपराधियों कि तरह टांग दिया गया था,अबतक सबके जेहन में है| जफूरा जरगर नाम कि जिस लड़की को पुलिस ने गिरफ्तार किया है, वो गर्भवती है| ये सब अभी इसलिए किया जा रहा है ताकि कोरोना से जूझ रहे लोगों कि नज़र न पड़े|

कोरोना महामारी से निबटने कि जिस तरह कि लचर तैयारी नज़र आती है, उससे इतना तो स्पष्ट है कि सरकार कि नज़र में लोगों कि जान कि कीमत कुछ नहीं है| दुनिया का कोई भी देश अपने नागरिकों को इस तरह सड़क पर मरने के लिए नहीं छोड़ देता है| अगर आंकड़ों को इमानदारी से इकठ्ठा करें से शायद यह भी खुलासा हो जाएगा कि कोरोना से ज्यादा लोग भूख से मर रहे हैं| बहुत से जगहों से छन-छन कर इस तरह कि ख़बरें थोड़ी बहुत बाहर भी आ रही हैं. जिस तरह से मिडिया सत्ता कि गोदी में खेल रही है ऐसा लगता नहीं है कि सही तस्वीर जनता के सामने आएगी| भारत में यह देखा गया है कि धार्मिक मामले में लोग आगे मदद करते हैं| सावन आदि के महीनो में जिस तरह से कांवड़ियों के लिए बिछ जाते हैं, तन- मन – धन से लग जाते हैं वह सेवा भाव कोरोना से प्रभावित लोगों के लिए नहीं देखा जा रहा है| इसके पीछे का एक कारण यह समझ में आता है कि हो सकता है कि इन गरीबों कि सेवा करने से मोक्ष या पुनर्जन्म सुधरने कि उम्मीद कम दिखती हो|

कितना अच्छा होता कि कोरोना महामारी से सीख लिया जाता और देश में एक व्यापक सामजिक परिवर्तन हो पाता | लगभग डेढ़ महीने से लोग घरों मे बंद हैं| सोचने-समझने और पढने-लिखने का मौका सबको मिला होगा लेकिन सदुपयोग होते हुए नहीं दिख रहा है. आज भी ऐसी घटनाएं सामने आ रही है कि दलित होने कि वजह से उनके हाथ का खाना नहीं खाया या मुस्लिम विक्रेता होने कि वजह से सब्जी आदि नहीं खरीद रहे हैं| भेदभाव करने का कोई मौका लोग ऐसे समय में भी नहीं छोड़ रहे हैं| भारतीय मिडिया अपने चरित्र में बहुत खतरनाक स्थिती में पहुच चुकी है अब यह एक मिडिया एक बर्बर समाज को प्रतिबिंबित कर रही है. ख़बरों को तोड़ मरोड़ के पेश करना अब छोटी बात रह गयी यहाँ तो अब कातिल को सभ्य बताया जा रहा है और सभी को कातिल|

हमारे लोग चर्चा करने में लगे हुए हैं कि कैसे दुनिया चीन के वस्तुओं का बहिस्कार करेगी , अमरीकी नीति क्या होगी आदि आदि | अंतर्राष्ट्रीय मसलों और ट्रूम पर चर्चा तो कर रहे हैं, लेकिन प्रश्न यह है कि क्या हम भारतीय लोग अपने ही देश और समाज कि स्थिति कि दशा पर कुछ सोच या कर पा रहे हैं. सबसे बड़ा यक्ष प्रश्न यह है | कोरोना के पश्चात जब दुनिया बदल रही होगी तो हम उसी दकियानुस्सी यथा स्थितिवादी समाज में रह जायेंगे| जब सामजिक परिवर्तन ही होता नही दिख रहा तो राजनितिक बदलाव होगा इसकी कोई संभावना नही दिखती है|

{ लेखक डॉ उदित राज पूर्व लोकसभा सदस्य और वर्तमान में कांग्रेस के राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं }

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