निजीकरण के दौर में कोरोना का कहर

निजीकरण के दौर में कोरोना का कहर
20 April 2020

आज पूरी दुनिया कोरोना वायरस के संक्रमण से जूझ रही है , दुनिया का कोई देश इससे अछूता नहीं है| भारत भी इस महामारी कि चपेट में आ चुका है, हर दिन इसके संक्रमण के सैकड़ो मामले सामने आ रहे हैं| इसके निबटने के लिए तमाम एहतियाती कदम भी उठाये जा रहे हैं| ऐसे समय में दवाओं कि खोज के और रोगियों के इलाज के लिए सरकारी अस्पातालों कि तरफ लौट आना सवाभाविक हो गया है| यह बहुत दिलचस्प इसलिए है क्यूंकि सरकार लगातार सरकारी उपक्रमों को निजी हाथों में सौपती रही हैं, लेकिन आज जब लोगों को मेडिकल सुविधाओं कि जरुरत है तो कहीं कोई निजी कंपनी नहीं दिख रही है| ऐसे से सवाल उठाना लाजिमी है कि क्या सरकार को निजीकरण के अंधे दौर से निकलकर वापस उपक्रमों के राष्ट्रीयकरण कि दिशा में जाना होगा| स्पेन ने तो बाकायदा अपने देश के तमाम अस्पतालों का राष्ट्रीयकरण करके इसकी शुरुआत भी कर दी है|

अब भारत में भी निजिज्करण के खिलाफ बहस तेज हो गयी है| भारत मे निजीकरण कि शुरुआत १९९१ में हुयी थी, उस समय देश के प्रधानमंत्री पी वी नरसिम्हा राव थे और वित्त मंत्री मनमोहन सिंह. कहा जाता है कि पूरी दुनिया भूमंडलीकरण और आर्थिक बदलाव के दौर से गुजर रही थी| ऐसे भी भारत भी अछूता नहीं रहा |यहाँ भी धीरे धीरे सहमति बनने लगी और भारत के दरवाजे भी निजीकरण के लिए खुल गए| जब मारुती कार का उत्पादन शुरू हुआ तो लोगों को भी लगने लगा कि यह एक किफायती काम है | अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी भारत पर आर्थिक मार्ग खोलने का दवाब बन रहा था|

जब दुनिया के अन्य देशों करे साथ सूचनाओं का आदान-प्रदान होता था तो लगने लगता था कि दुनिया एक और देश निजिकर्रण कि वजह से ही विकास कर रहे हैं| धीरे धीरे सहमति बन गयी और भारत के द्वार निजीकरण के लिए खुल गए| धीरे –धीरे निजीकरण ने गति पकड़ी , फिर तूफ़ान बना और २०१४ के बाद तो जैसे निजीकरण कि सुनामी आ गयी|

 

लचर स्वास्थ्य सुविधाओ के बूते कोरोनो से लड़ना नामुमकिन

भारत में स्वास्थ्य सेवाओं कि हालत बहुत बुरी स्थिति में है| आपको जानकार हैरानी नहीं होनि चाहिए कि वर्ष 2020-21 के बजट में भारत में सिर्फ 1.6 प्रतिशत अर्थात 67,489 करोड़ रुपये ही सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं पर खर्च करने का प्रावधान किया गया है, जो दुनिया भर में सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं पर होने वाले औसत खर्च की तुलना में ही काफी कम नहीं है, बल्कि कम आमदनी वाले देशों के खर्च की तुलना में भी न्यूनतम है| कोरोना वायरस (कोविड-19) महामारी पर अंकुश लगने तक देश में सारी स्वास्थ्य सुविधाओं और उनसे संबंधित इकाइयों का राष्ट्रीकरण करने के लिए सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की गई थी| सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को कोविड-19 के खतरे से निपटने के लिए भारत के स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र का राष्ट्रीयकरण करने के लिए सरकार को किसी भी प्रकार का निर्देश देने से इनकार कर दिया|मिडिया में जिस तरह कि ख़बरें चल रही हैं उसके मुताबिक़ कोरोना से लड़के के लिए जिस आवश्यक वस्तुओं कि जरुरत है उनसे पीपीई किट और वेंटिलेटर प्रमुख हैं और भारत में इसकी भारी कमी है|

पिछले दिनों सरकार ने चीन से पंद्रह लाख पी पी ई आयात कि अनुमति दी है| जीतने भी सरकारी अस्पताल हैं, अधिकाँश बहुत ही बुरी स्थिति में हैं| कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि बी हम स्वास्थ्य के मोर्चे पर कोरोना से लड़ने में बुरी तरह से अक्षम हैं| सरकार ने मेडिकल से जुडी लगभग तमाम सेवाओं का निजीकरण कर दिया उसका नकारात्मक असर के रूप में भी इसको देखा जा रहा है| सरकारी संस्थानों और निजी संस्थानों में सबसे मौलिक अंतर यह है कि सरकारी संस्थान शोध कि दिशा में काम करते हैं इनका लक्ष्य जनकल्याण होता है ना कि मिनाफा कमाना वहीँ निजी कंपनियों का एकमात्र मकसद मुनाफा कमाना होता है| शोध के लिए निजी कम्पनियाँ सरकार पर निभर होती हैं| यही वजह है कि आज ये निजी कम्पनियाँ इस तरह से गायब हो गयी हैं जैसे गधे के सर से सींग |पिछले दिनों टाइम्स ऑफ़ इंडिया में छपी एक रिपोर्ट कि अनुसार तमिलनाडु में कोरोना के ११७३ मामले आये जिसमे से सिर्फ 20 पीड़ित ही निजी अस्पताल गए, वहीँ कर्नाटक में २८० मरीजों में केवल 30 पीड़ित ही निजी अस्पताल का रूख किया| इससे एक और बात स्पष्ट होती है कि आज भी लोगों का यकीन सरकारी संस्थानों पर ही है|

जनवितरण प्रणाली बनी सहारा

कोरोना संक्रमण कि वजह से तमाम छोटे-बड़े उद्योग बंद पड़े हुए हैं, रोजगार कहीं है नहीं| सबसे बुरी हालत गरीबों कि है| ऐसे में सरकार गरीबों के लिए राशन आदि के इन्तेजाम में लगी हुयी है | सबसे दिलचस्प बात ये है कि जिस पीडीएस {जन वितरण प्रणाली } को लोग एक आउट डेटेड सिस्टम मानने लगे थे वही सिस्टम आज लोगों कि जीवन रेखा बन गया है| भारत में जन वितरण प्रणाली उदारीकरण के पहले से से काम कर रहा है|

उपभोक्ता मामलों के मंत्री (Minister for Consumer Affairs, Food and Public Distribution) रामविलास पासवान ने बुधवार को कहा कि 75 करोड़ बेनिफिशियरी पब्लिक डिस्ट्रीब्यूशन सिस्टम (Public Distribution System) के तहत एक बार में 6 महीने का राशन ले सकते हैं| सरकार ने ये फैसला कोरोना वायरस के संक्रमण को देखते हुए लिया है| फिलहाल, पीडीएस (PDS) के जरिए बेनिफिशियरी को अधिकतम 2 महीने का राशन एडवांस में लेने की सुविधा है| हालांकि पंजाब सरकार पहले से ही 6 महीने का राशन दे रही है| उन्होंने कहा, हमारे गोदामों में काफी अनाज हैं|

हमने राज्य सरकारों और केंद्र शासित प्रदेशों को गरीबों को एक बार में 6 महीने का राशन बांटने को कहा है| केंद्र ने राज्य सरकार को एडवाइजरी जारी की है| जिसमें कहा गया है कि कोविड-19 (COVID-19) के बढ़ते प्रकोप को देखते हुए राशन दुकानों पर भीड़ को मैनेज करने के लिए सुरक्षात्मक कदम उठाएं. वर्तमान समय में, सरकार पीडीएस सिस्टम के तहत देश भर के 5 लाख राशन दुकानों पर बेनिफिशियरी को 5 किलोग्राम सब्सिडाइज्ड अनाज प्रत्येक महीने देती है| इस पर सरकार को सालाना 1.4 लाख करोड़ रुपये खर्च आता है| नेशनल फूड सिक्योरिटी एक्ट के तहत राशन दुकानों के जरिए अनाज सब्सिडाइज्ड रेट पर मिलते हैं| 3 रुपये प्रति किलोग्राम चावल, 2 रुपये प्रति किलोग्राम गेहूं और 1 रुपये प्रति किलोग्राम कॉर्स अनाज बेचती है| जसी तरह से सरकार और जनता पीडीएस सिस्टम पर भरोसा दिखा रही है, ऐसा लगता है कि शायद निजीकरण से लोगों का मोह भंग हो|

निजीकरण ने रोजगार का हाल किया बेहाल

भारत में जिस तरह से निजीकरण को “विकास” का चोला पहना कर उतरा गया , पहली नज़र में यह बहुत आकर्षक लगता है पर २०१४ के बाद सरकार ने जिस तरह से औने पौने तरीके से सरकारी कंपनियों को बेचना शुरू कर दिया उससे भी लोगों का भ्रम टूटना शुरू हुआ है| सरकार एल आई सी , एयर इंडिया , बी पी सी एल और रेलवे जैसे कंपनियों को निजी हाथों में बेचने कि प्रक्रिया लगभग पूरी कर चुकी है| पर जिस तरह से कोरोना के कहर के समय एयर इंडिया के विमानों का प्रयोग हो रहा है और रेलवे के बोगियों को अस्थायी अस्पताल में बदला जा रहा है उससे शायद राष्ट्रीय संस्थानों कि अहमियत समझ में आये|

सरकार कि योजनाओं कि भी खुली पोल

कोरोना महामारी के पहले से ही देश में बेरोजगारी अपने चरम पर थी | आंकड़े बताते हैं कि पिछले ४५ साल में बेरोजगारी अपने चरम पर थी | कोरोना ने हालत और भी बुरी कर दी | सभी छोटी-बड़ी कंपनियों कि हालत खस्ता है| हालांकि, सरकार ने कंपनियों से नौकरी से ना निकालने की अपील है लेकिन इसका बहुत ज़्यादा असर नहीं होगा| रिपोर्ट्स बताती हैं कि इस दौर में बेरोजगारी तेजी से तीन गुना बढ़ गयी हैं. सेंटर फॉर मोनीटरिंग द इन्डियन इकोनोमी कि रिपोर्ट्स के अनुसार 23 मार्च से 29 मार्च तक शहरी क्षेत्र में बेरोजगारी दर 8.7 फीसदी से बढ़कर 30 फीसदी हो गयी और ग्रामीण क्षेत्र में 8.3 फीसदी से बढ़कर 21 फीसदी हो गयी| राष्ट्रीय स्तर पर बेरोजगारी डर 8.4 फीसदी से बढ़कर 21 फीसदी हुयी है|

इसकी वजह से पलायन कि समस्या उठ खड़ी हुयी है| अगर उद्योग सरकारी होते तो शायद पलायन कि समस्या इतनी बड़ी नहीं होती| सरकार ने रोजगार के लिए कई परोयोज्नाएं शुरू कि ज्सिका मिडिया में बहुत जोर शोर से प्रचार किया गया था| मेक इन इंडिया , स्टार्ट उप इंडिया , स्किल इंडिया जैसी तमाम योजनायें धाराशायी हो गयी| हाँ, इसके नाम पर निजी कंपनियों ने खूब लूट मचाई और रफूचक्कर हो गए| वही शिक्षा व्यवस्था का भी हाल निजीकरण कि वजह से बुरा हो गया| जो संस्थान निजीकरण के नाम पर शिक्षा जगत में आये उनका केवल एक ही उद्देश्य था , वो था मुनाफाखोरी| परिणाम यह हुआ कि पैसे कि लूट खसोट में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा ही गायब हो गयी, जो डिग्रियां यहाँ से मिली वो किसी काम कि नहीं हैं|

ऐसा नहीं है कि निजी कंपनिया या संस्थान जनकल्याण का काम नहीं करते हैं| धार्मिक क्रिया कलापों के दौरान इनका कल्याणकारी काम खूब दिखता है| कांवरियों के लिए भव्य पंडाल और खाने पीने से लेकर रहने तक का इतन्तेजाम ये खूब शानदार तरीके से मुफ्त में करते हैं| अब शायद भारत के लिए भी यह सोचने का समय है कि देश को कैसे निजीकरण से जंजाल से निकालकर तमाम संस्थानों का राष्ट्रीयकरण कर दिया जाय| स्पेन एक नजीर के तौर पर है ही|

(लेखक डॉ उदित राज पूर्व लोकसभा सदस्य और वर्तमान में कांग्रेस के राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं|)

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