कावंड की राजनीति

कावंड की राजनीति

09 Aug. 2019

कावंड की राजनीति: सामाजिक एवं आर्थिक प्रभाव

सावन का महीना चल रहा है। लाखों और करोड़ों लोग केसरिया वस्त्र पहन कर गंगा जल शिवलिंग पर चड़ाने निकल पड़े हैं। झंुड के झुंड केसरिया वस्त्र धारण करने वाले कांवड़ियों का जनसैलाब देखते बन रहा हंै।

यह कब शुरू हुई और क्यों इस पर भिन्न भिन्न राय है। कुछ का मानना है कि परशुराम ने बागपत के पास पुरा महादेव का कांवड़ से गंगा जल लाकर जलाभिषेक किया था। वह जल गढ़मुक्तेश्वर से ले गए थे। कुछ का मानना है कि त्रेता युग में श्रवण कुमार ने कांवड़ यात्रा शुरू की थी। कुछ का यह भी मानना है कि भगवान राम पहले के कांवड़िया थे।

रावण के द्वारा भी इसकी परंपरा बताई जाती है। 17 जुलाई से कांवड़ यात्रा शुरू हो जाती है। कांवड़ में गंगा जल भरकर शिव को अर्पित किया जाता है। नहाकर और शुद्ध होकर कांवड़ को छुआ जाता और शौच आदि के लिए कहीं ठहरना पड़े तो फिर से नहाकर ही छुआ जाता है। चमडे़ से बनी हुई वस्तुओं का इस्तेमाल वर्जित है। विश्राम करना हो तो कहीं टांगना पड़ता है। भक्त शिव का जय कारा लगाएं और नशा आदि से दूर रहें। कई तरीके के कांवड़ हैं, जैसे सामन्य, डाक, दाड़ी एवं खड़ी कांवड़ आदि।

कांवड़ यात्रा से जुड़े जो नियम, वर्जना, शुध्दता, अनुशासन आदि हैं वे बडे़ कड़े हंै जिनका अनुपालन करना कठिन है। जहां अस्था और भक्ति की बात आ जाए वहां पर क्या कठिन और सहज, ज्यादा मायने नहीं रखता है। दो दशक पहले ही इनकी संख्या में बढ़ोत्तरी शुरू हुई है और अब दिनो-दिन बढ़ता ही जा रहा है।

हजारों पुलिस की तैनाती होती है ताकि रास्ता बाधित न हो और मारपीट की भी आशंका बनी रहती है, उसे रोका जा सके। ये झुंड में चलते हैं और लोग डरे रहते हैं कि कहीं इनसे पंगा न हो जाए नहीं तो लेने के देने पड़ जाते हैं और अब तक कितने कांड हो चुके हैं। तोड़-फोड़ भी खूब करते हैं और लोग डरे सहमे रहते हैं कि इनसे बच के ही रहें। कुछ कांवड़िये तो वर्जित वस्तुओं के सेवन तक ही सीमित नहीं रहते बल्कि तमाम तरह के नशा करते हुए भी देखे जा सकते हंै।

इस दौरान व्यवसाय में काफी गिरावट आती है क्योंकि वस्तुओं का यातायात नहीं हो पाता। व्यापारियों का कहना है कि हजारों कारोड़ की क्षति होती है।

 

कावंड की राजनीति: धार्मिक आयोजनों का राजनीतिकरण और आर्थिक प्रभाव

कुछ दिलचस्प बात देखने को मिलती है कि करोड़पति-अरबपति शिरकत करते हुए नहीं देखे होगें। शिक्षित लोग भी नहीं के बारबर भाग लेते हैं। सैकड़ो जगह पंडाल लगाए जाते हंै और अन्य सुविधा जैसे खाने, रूकने इत्यादि की होती है। अधिकतर वही लोग व्यवस्था करते हैं जो व्यापारी हैं या जिनकी आर्थिक स्थिति अच्छी होती है। एक बात सोचने वाली है कि जो साधन एवं व्यवस्था देने वाले होते हंै, न तो वे और न ही उनके बच्चे कांवड़ ले जाते होगें।

जो अधिकारी-कर्मचारी इनकी व्यवस्था देखते हैं वो भी शायद ही कांवड़ यात्रा पर निकलते हंै। सवर्ण समाज के लोग भी नहीं के बाराबर भाग लेते है। जगह- जगह पर राजनैतिक लोगों द्वारा स्वागत की व्यवस्था होती है लेकिन कांवड़ लेकर खुद नहीं निकलते। सबसे ज्यादा पिछड़ा समाज और उसके बाद दलित की भागीदारी देखी गई है।

अखिर में ऐसा क्यों? फेसबुक पर मुलायम सिंह यादव के नाम से एक वीडियो वायरल हो रही है, जिन्होंने कांवड़ियों की जाति पूछी तो पता लगा कि पिछड़े व दलित ही निकले। क्या यह मान लें कि इसके पीछे अशिक्षा जिम्मेदार है या दलितों-पिछडों को कहीं इरादतन तो नहीं ढकेला जा रहा है।

कारोबारी अपने व्यापार के लिए, राजनैतिक वोट के लिए और सवर्ण वर्ग व्यवस्था को जिंदा रखने के लिए कर रहे हैं। अगर कांवड़िये स्वतः आते हैं तो किसी को क्या ऐतराज, लेकिन देखा यह जा रहा है कि विभिन्न तरीकों से इन्हंे प्रोत्साहित किया जाता है। सरकारें स्वयं प्रोत्साहित कर रही हैं कि लोग ज्यादा से ज्यादा भाग लें।

हजारों करोड़ रूपये इसमें खर्च किए जा रहे हंै। उस पैसे से शिक्षा और स्वाथ्य के क्षेत्र में प्रगति की जा सकती है। अगर लोग स्वतः करंे तो किसी को क्या ऐतराज लेकिन जब आम लोगों को राजनैतिक लोग प्रोत्साहित करें तो यह पाखण्ड और अंधविश्वास फैलाना हुआ। लगभग 10 करोड़ रूपये की लागत से अयोध्या में राम की पौड़ी का निर्माण, दीपावली मनाने में छः करोड़ रूपये उ.प्र. सरकार ने खर्च किए। सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के पहले हज सब्सिडी दी जाती थी।

संविधान का कोई धर्म नहीं है और अन्य धर्मों के लोग महसूस करते हैं कि कि उनके साथ अन्याय हो रहा है। सरकार को निष्पक्ष होना चाहिए। इस तरह से हमारा समाज अंधकार युग की ओर ढकेला जा रहा है।

कावंड की राजनीति: धार्मिक अभ्यास और अंधविश्वास का प्रभाव

भगवान शिव की उपस्थिति किसी एक निश्चित स्थान पर नहीं है और न ही किसी और भगवान की होती है। श्रद्धा, भक्ति और आस्तिकता किसी भी समय और स्थान से की जा सकती है। दुनिया के किसी भी विकसित देश में सरकार के द्वारा इतने बड़े पैमाने पर आम जनता को ऐसे कृत्य के लिए प्रेरित नहीं किया जाता।

सरकार को विज्ञान, शिक्षा, रोजगार आदि के लिए इस तरह के प्रयास किया जाना चाहिए, जो दिखता नहीं। चार हजार करोड़ रूपये से ज्यादा खर्च करके इलाहाबाद में कुंभ के मेले का आयोजन किया गया। इस पूंजी से कितने विश्वविद्यालय या स्कूल बनाए जा सकते थे। इससे भी राजनैतिक लाभ मिलता और देश की प्रगति भी होती।

अंधविश्वास फैलाने से अंततः सभी को कीमत चुकानी पड़ेगी। दुनिया में कोई ऐसा समाज नहीं है जो विज्ञान, तर्क, तकनीक के बिना आगे गया हो। जो समाज या देश राजनीति, धर्म और पाखण्ड को बढ़ावा देने लगे तो समझो कि उसके बुरे दिन देर-सबेर आने ही हैं। यूरोप में जब तक चर्च का हस्तक्षेप राजनीति में रहा, वहां प्रगति नहीं हो पायी।

अंधविश्वासी समाज व्यक्ति की आज़ादी, इच्छा और सोच को प्रभावित करता है। ऐसे समाज में रोजगार व शिक्षा की बात न करके पूर्वजन्म और अगले जन्म की बात होती है। निर्बल जैसे दलित, महिला एवं पिछड़े आदि को उनकी स्थिति के लिए ईश्वर की इच्छा या पूर्वजन्म का कृत्य को कारण बताकर समझाना और संतुष्ट करना आसान होता है।

डॉ उदित राज
(लेखक पूर्व आईआरएस व पूर्व लोकसभा सदस्य रह चुके है, वर्तमान में कांग्रेस के राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं | )

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