डॉ अम्बेडकर की नजर में न्यायपालिका – डॉ. उदित राज

br ambedkar
29 April 2020

न्यायपालिका में जातिगत पक्षपात की विरासत

सुप्रीम कोर्ट का आरक्षण विरोधी फ़ैसला उस समय आया जब गरीब और मजदूर भूखे प्यासे जगह-जगह पर फंसे हैं | कोरोना महामारी के समय में उनकी समस्या के ऊपर सुनवाई करनी चाहिए था , लेकिन जब दलितों- आदिवासियों- पिछड़ों के आरक्षण का मामला आता है तो न्यायपालिका अतिरिक्त सक्रियता दिखाती है| अभी कोरोना महासंकट से जूझ रहे करोड़ों लोगों कि समस्या का निष्पादन करना जरुरी था या एक पत्रकार को बेल देना ? देश में इस संवेदनहीनता पर दबी जुबान में बहुत चर्चा है | जब देश असाधारण परिस्थितियों से गुजर रहा हो तो भी गैर जरूरी विषय पर न्यायपालिका कि तत्परता पर लोग हतप्रभ हैं | 22 अप्रैल को पाँच जजों कि पीठ ने फ़ैसला दिया कि जो दलित क्रीमी लेयर में आ गये हैं, उन्हें सूची से बाहर करने पर सरकार विचार करे| इन परिस्थितियों को देखते हुए क्या न्यायपालिका से निष्पक्षता कि उम्मीद कि जा सकती है|

डॉ अम्बेडकर कि नज़र में न्यायपालिका के चरित्र को समझना जरुरी हो गया है | 1936 ई.में. बाम्बे में ग्राम पंचायत कि सभा मे दिए अपने चर्चित भाषण में कहा था – यदि मेरे माननीय मित्र मुझे विश्वास दिला दें कि वर्तमान न्यायपालिका में साम्प्रदायिक आधार पर पक्षपात नही होता है और एक ब्राह्मण न्यायाधीश जब ब्राह्मणवादी और गैर ब्राह्मणवादी प्रतिवादी के बिच निर्णय देने बैठता है तो वह केवल न्यायाधीश क्र रूप मर फ़ैसला करता है , तो शायद मैं उनकर प्रस्ताव का समर्थन करूँगा .

मैं जानता हूँ कि हमारे यहाँ न्यायपालिका किस प्रकार कि है| अगर सदन के सदस्यों में धैर्य है तो मैं ऐसे अनेक कहानियां सुना सकता हूँ कि न्यायपालिका ने अपनी निजी स्थिति का दुरूपयोग किया है और अनैतिकता करती है| ब्राह्मण बनाम बहुजन हित टकराव कि स्थिति में ब्राह्मण कभी जज नही होता है , हमेशा पार्टी ही होता है| उसे फ़ैसला करने का अधिकार देना न्याय कि हत्या करना है| उसके फैसले बहुसंख्यक समाज के लिए वैसे ही अपमान का निशान है जैसे मनु समृति के विधान | एक आदमी जो खुद उसी वर्ग से है जिसने केस फ़ाइल किया है , क्या वो अपने समाज से प्रभावित नहीं हो सकता है ? यहाँ सीधे सीधे ब्राह्मणों का कनफ्लिक्ट ऑफ़ इंटरेस्ट शामिल है |

न्यायपालिका का दोहरा मापदंड: धनी बनाम गरीब

पिछले तीन दशक से देखा जा रहा है कि न्यायपालिका का चरित्र ना केवल दलित-पिछड़ा –अल्पसंन्ख्यक विरोधी है बल्कि ग़रीब विरोधी भी हो गया है| मुलायम, मधु कोड़ा , छगन भुजबल, कनी माझी , लालू, शिभु शोरेन से लेकर तमाम नेताओं कि सूची देखिये तो अधिकाँश दलित- पिछड़े ही जेल गये हैं| क्या ये लोग ही भ्रष्ट हैं इनसे सौ गुना भ्रष्ट लोग जो सवर्ण समाज के हैं वो इमानदार बने हुए हैं क्यूंकि सीबीआई ,इनकम टैक्स और न्यायपालिका उनको बचाती है| स्विट्जरलैंड बैंक में काला धन जमा करने वालों और बैंको के लाखो करोड़ लेकर भागने वालों में से शायद एक भी दलित –पिछड़ा – आदिवासी नही है| इस मापदंड से देखा जाय तो उपरोक्त दलित- पिछड़े नेताओं को फंसाया गया है | बी पी सिंह कि सरकार ने जब पिछडो को आरक्षण दिया तो इस देश में रथयात्रा निकाली गयी देश में मंडल के समानांतर कमंडल को खड़ा करने कि साजिश रची गयी|

16 दिसम्बर 1992 को फ़ैसला आया जिसमे 27 आरक्षण पिछड़ों को मिला फिर भी क्रीमी लेयर लगा दिया | आश्चर्य कि बात है कि इस समय जब दलित-आदिवासी का आरक्षण विचाराधीन नही था तो भी मंडल जजमेंट में दे दिया| खाली पदों पर भर्ती पर रोक ,विभागीय परीक्षा में ग्रेस मार्क को खत्म करना और पदोन्नति में आरक्षण आदि| 22 मार्च 2020 का फ़ैसला भी इसी मानसिकता के सन्दर्भ में देखना होगा | मंडल जजमेंट में आरक्षण कि सीमा 50 फीसदी तक सीमित कर दिया जबकि यह काम संसद भी कर सकती है| कानून बनाने का काम संसद ही करे और न्यायपालिका का काम कानून लागू करने का है, वही करे |2019 में जब गरीब सवर्णों को दस फीसदी आरक्षण दिया गया तो पचास फीसदी कि सीमा टूट गयी| तब देश के किसी भी सवर्ण जज ने टिप्पणी नही किया| क्या यह समझने के लिए पर्याप्त नही है कि जब उनके भाई- भतीजो को दिया जाता है उबके पक्ष में न्यायधीश ही खड़े हो जाते हैं चाहे वो गलत ही क्यूँ नही हो| 2000 में कर्नाटक के अधिसूचित क्षेत्र में सौ फीसदी आरक्षण दिया तो पचास फीसदी कि दुहाई देने लगे | जबकि सवर्णों को अलग से दस फीसदी आरक्षण देना एक तो अपने आप में ही असंवैधानिक कदम था और पचास फीसदी कि सीमा भी टूटी थी|

दुनिया में सबसे ताकतवर न्यायपालिका भारत में है| ये दलित-पिछड़ा- आदिवासी –अल्पसंख्यक के साथ गरीब विरोधी है| सुप्रीम कोर्ट के वकील प्रशांत भूषण ने कहा कि – लॉकडाउन की वजह से राज्यों में फंसे प्रवासी मजदूरों को लेकर जगदीप एस छोकर ने सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका दायर की थी इसे कोर्ट ने जरूरी नहीं समझा। एक हफ्ते तक इसे सुनवाई के लिए शामिल नहीं किया गया। लेकिन एफआईआर निरस्त करने के लिए अर्णब गोस्वामी द्वारा दायर की गई याचिका पर कोर्ट ने अगले दिन ही सुनवाई के लिए शामिल कर लिया।गरीब- मजदूर के मुक़दमे सालों तक लटके रहते हैं कॉर्पोरेट का जब मामला होता है तो उनकी मर्ज़ी से फैसला होता है| अमीरों के लिए रात में भी अदालत लग जाति है|

न्यायधीशों के ही वर्ताव से वकील इतने महगे हो गये कि मध्यमवर्ग भी कोर्ट कचहरी के नाम से कांप जाता है| ये आम बात है कि वरिष्ठ वकील एक मिनट- पांच मिनट या दस मिनट के बहस के लिए दास , बीस लाख से लेकर करोड़ों कि फीस लेते हैं| कारण यह है कि वकीलों का फेस वेल्यू कल्चर पैदा हो गया है| और इसको बनाने का काम जज ही करते है| गिने चुने वकीलों कि बहस को ही सुनते हैं बाकी वकीलों को या तो नहीं सुनते या डांट कर चुप करा दिया जाता है| जो देश कि मेरिट कर रहे हैं इनकी खुद कि ही मेरिट का पता नहीं है|

(लेखक डॉ उदित राज पूर्व लोकसभा सदस्य और वर्तमान में कांग्रेस के राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं )

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