दलित संघर्ष टिका भावनाओं पर , कितना टिकाऊ – डॉ उदित राज

दलित संघर्ष  टिका भावनाओं पर , कितना टिकाऊ – डॉ उदित राज

18 March 2020

बहुजन आंदोलन: भावनात्मक आधार और राजनीतिक चुनौतियां

भारत में भावनाओं से काम ज्यादा चलता है और तथ्य से कम दलित आन्दोलन इससे अछूता नहीं है | दलितों का एक तबका सबसे ज्यादा कांग्रेस से इसलिए नाराज़ रहते हैं, क्यूंकि डॉ अम्बेडकर को उन्होंने चुनाव में हराया | दुनिया में क्या कोई भी चुनाव हारने के लिए लड़ता है? बहुजन समाज पार्टी ने इसको बहुत प्रचारित किया कि बाबा साहब को चुनाव नहीं जितने दिया गया | तथ्यात्मक रूप से यह भी सही नहीं है | हुआ यह था कि कम्युनिष्ट पार्टी के नेता एस ए डांगे को दो वोट दे दिया था जबकि एक ही देना चाहिए था , उस समय कि चुनाव प्रणाली में एक से अधिक प्रत्याशी जीत कर आते थे| मान लिया जाय कि कांग्रेस ने हराया होता तो भी यह कोई मुद्दा नहीं है | जहाँ तक हिन्दू कोड बिल ना पास होने कि वजह से , उनका इस्तीफ़ा हुआ |

नेहरु जी चाहते थे कि विधेयक पास हो जाय लेकिन उस समय के सांसद प्रतिनिधि बगावत पर उतर गए | यह भी आरोप कांग्रेस पर नहीं लगता | मान लिया जाय कि कांग्रेस ने नहीं पास होने दिया तो भी आरोप नहीं लगाया जा सकता , चुकी देश का जनमत कांग्रेस के साथ था| बाबा साहब भारत विभाजन से पहले बंगाल से चुनकर के संविधान सभा में आये थे | देश के बटवारे के बाद उनकी सदस्यता समाप्त हो गयी थी और कांग्रेस ने जित्वा कर के फिर से संविधान सभा में भेजा | कानून मंत्री भी बाबा साहब को बनाया गया और सबसे बड़ी बात यह हुयी कि संविधान निर्मात्री समिति का चेयरमैन बनाया |

अगर तर्कसंगति से देखा जाय तो कांग्रेस ने सामान और अवसर ही दिया | जो यह आरोप लगाते हैं वो अपने गिरेबान में झांककर क्यों नही देखते कि दो बार चुनाव हारे तो क्यों नहीं जिताने के लिए लाखों कि संख्या में दलित पहुच गए| कौन नहीं जानता कि बाबा साहब अंतिम दिनों में अकेले पद गए थे और उनके सचिव नानक चाँद रट्टू ही साथ रहा करते थे और शत प्रतिशत दलित कांग्रेस को अस्सी के दशक तक वोट देते रहे और बाबू जगजीवन राम दलितों के एकक्षत्र नेता हुआ करते थे|

बहुजन समाज पार्टी कि बुनियाद भावनाओं पर ज्यादा और तथ्यों और भागीदारी से परे रखी गयी है | तथ्य और भागीदारी से जैसे इनका कोई लेना देना ही नहीं हो | शुरुआत में तो प्रशिक्षण शिविर आदि भी लगाये गए जिसमे सत्ता हासिल करना ही शुरू से लेकर अंत तक लक्ष्य निर्धारित किया | इस तरह कि शुरुआत करना कोई गलती नहीं थी लेकिन दशकों तक इसी भावना के इर्दगिर्द आन्दोलन को चलाए रखना धूर्तता और मुर्खता दोनों है |

जाति व्यावस्था में ब्राह्मण ,क्षत्रिय, वैश्य फिलहाल क्या आने वाले सदी में भी नेता नहीं मानने वाले हैं| पिछड़ा वर्ग अपने से ऊपर वालों का नेत्रित्व तो आसानी से स्वीकार कर लेंगे लेकिन दलित नेत्रित्व को नही | ऐसे में रह गए केवल दलित , दलितों में भी भयंकर जातिवाद है इसलिए जिस जाति कि संख्या जयादा है और जागृति है , वह ताकत बन जाति है , लेकिन सत्ता कि चाबी नही ले सकता | सत्ता कि चाबी से कई ताले खुल जाते हैं यह बाबा साहब ने जरुर कहा था लेकिन उस परिपेक्ष्य में कि भविष्य में जातिवाद कम होगा लेकिन राजनीति में तो जातीपाती तेजी से बढ़ा |

कम या ज्यादा सभी जातियों में चेतना आई है और उसका प्रतिकूल असर ये पड़ा कि जाति आधारित तमाम दल बन गये| परिस्थितियां बदल गयी हैं और विधायकों और सांसदों कि शक्तियां बहुत कम हुयी हैं| राजनैतिक सत्ता बहुत कमजोर हो गयी है , मिडिया सत्ता को बहुत प्रभावित करने लगी है जो तथाकथित उच्च जाति के हाथों में है| देश का अकेले एक पूंजीपति पूरे चुनाव को प्रभावित कर सकता है , जितना कानून संसद बनाती है, लगभग उसी के बराबर उच्च न्यायपालिका भी बनाने लगी है|

बहुजन आंदोलन की भावनात्मक बुनियाद और रणनीतिक चुकें

सब्जबाग या लक्ष्य ऐसा रखा गया जो कभी पूरा नही हो सकता था और भक्त लोग दशकों तक लगे रहे नेत्रित्व को भी बड़ा आराम कि दिन प्रतिदिन के आधार पर कार्यकर्ताओं से मिलने कि फिकर नहीं , ना अधिकार और मुद्दों को लेकर के सड़क पर उतरने कि जरुरत | संसद और विधान सभाओं में भी आवाज़ उठाने कि जरुरत नहीं |

कार्यकर्ताओं को हमेशा बताये रखना कि हम देने वाले बनेंगे , तो खोते जाओ , संघर्ष कि जरुरत नही , संशाधनो और शासन प्रशासन में भागीदारी माँगना दूसरों के सामने हाथ फैलाना | अपनी सत्ता आएगी और हम देने वाले होंगे , इसी भावना में रात दिन कार्यकर्त्ता जुता रहा और देता गया कि एक दिन सत्ता आएगी तब सब भरपाई हो जायेगी . इसी के इन्तेजार में आरक्षण ख़तम करा लिया , जो दुसरे संगठन भागीदारी , अधिकार और सम्मान के लिए लड़ने कि कोशिश कर रहे थे उलटे उनको गालियाँ दी गयी कि ये दुसरे दलों से मिलकर के बहुजन समाज पार्टी का नेत्रित्व कमजोर कर रहे हैं|

जितने आरोपों कि बौछार हमारे साथियों को झेलना पड़ा उसको बयान करना मुश्किल है | कार्यकर्ता इस हद तक अंधभक्त हो गया कि चिट्ठी लिखवाना , उत्पीडन , वजीफा, हॉस्टल, निजीकरण , आरक्षण और आर्थिक सशक्तता आदि कि बात करना बेवकूफी समझा जाने लगा क्यूंकि लक्ष्य सत्ता कि चाबी मिलने पर ही पूरा होने वाला है. इसी मुर्खता ,भावना के आवेग और इन्तेजार में लगभग सबकुछ खो गया| कुछ लोगों को अभी भी आत्मालोचना करना या इतनी बड़ी भूल को महसूस नहीं करेंगे , दूसरी बात ये है कि मानसिक इमानदारी का भी अभाव है | आरक्षण लागू करना , विशेष भर्ती अभियान , अनारक्षण पर प्रतिबन्ध, गैस, पेट्रोल,राशन आदि में कोटा , क़र्ज़ कि सहूलियत , दलित कानून स्पेशल कंपोनेंट प्लान ,भूमिहीनों को भूमि मुहैया कारण , वजीफा, हॉस्टल आदि किसने किया , जिसकी वजह से बहुजन आन्दोलन के लिए लोग योग्य और साधन वाले बने| हंगामा करना मकसद रहा सूरत बदल रही है कि नहीं |

सूरत बदलना तब कहते न्यायपालिका , मिडिया, कल-संस्कृति, नाटक, साहित्य, फिल्म , कोर्पोरेट , उद्योग आदि में भागीदारी हुयी होती तो. इससे अच्छा तो समाजवादी पार्टी और राजद मॉडल है जो अपने कार्यकर्ताओं को कई क्षेत्रों में भागीदारी दिलाते हैं और मनोबल भी बढे |

(लेखक डॉ उदित राज, पूर्व लोकसभा सदस्य एवं कांग्रेस के राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं|)

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