21 May 2020
कोरोना की सर्वाधिक मार दलित- पिछड़ों पर: वादे बनाम वास्तविकता
इस समय लाखों लोग दिल्ली , अहमदाबाद, सूरत , मुंबई और छोटे-बड़े शहरों में सिर पर गठरी या झोला लेकर चलते नज़र आयेंगे | शौक से तो अपने घरों को छोड़कर के बाहर मजदूरी करने नहीं आये थे| जरुर कोई मजबूरी है | सबसे कम जमीन दलितों के पास है उसके बाद आदिवासी फिर पिछड़े आते हैं| छोटी- मोटी किसानी भी होती तो अपने गाँव में गुजरा कर लेते | कोरोना महामारी के समय दुनिया कि किसी सरकार ने आर्थिक नीति में बदलाव नहीं किया बल्कि सभी वर्गों को यथा संभव नकदी देकर मदद करने का प्रयास किया| 20 लाख करोड़ पैकेज की घोषणा हुयी , शुरू में लगा कि मजदूरों को बड़ी राहत मिलने वाली है| जब अर्थशास्त्रियों ने पैकेज का रेशा- रेशा उधेडा तो पता लगा एक प्रतिशत से भी कम राहत पैकेज है और शेष कर्ज आदि के रूप में घोषणा की गयी है|
जातिगत आधार पर भेदभाव: एक खुली चुनौती
शीर्षक से प्रथम द्रष्टया लगेगा कि जाति-पाति कि बात छेड़ दी गयी है लेकिन देश की सच्चाई यही है| ये खुली चुनौती है कि पैदल , रेंगते , घसीटते ,साइकिल , ट्रक में जो लादे हुए मजदूर जा रहे हैं जाकर उनकी जाति पूछे तो इस आरोप से मूक हुआ जा सकता है कि कोरोना में जाति खोजा जा रहा है| यह बात किसी दफ्तर में बैठकर आकलन के आधार पर नही लिखी जा रही है बल्कि यही सच है| यह भी सम्भव है कि मजदूरों को सरकार ने पूरे मन से तंत्र को लगा कर के घर पहुचाने का काम नहीं किया क्योंकि ये दलित-पिछड़े हैं| भारत सरकार का तंत्र इतना सशक्त है कि चाहे तो इनको घरों तक पुचा सकती है | पूर्व सेना अधिकारी का भी बयान आया है कि हमलोग इन्तजार कर रहे हैं कि मदद करने का मौका मिले| इस वीभत्स समस्या से निबटने के लिए सेना को लगा दिया जाना चाहिए| 12617 ट्रेन्स हैं , प्रतिदिन 23 मिलियंस अर्थात 2.3 करोड़ यात्री प्रतिदिन ढोने की क्षमता है , अगर इच्छा शक्ति और इमानदारी से उनका युद्धस्तर पर इसका परिचालन किया गया होता कब का मजदूर वतन वापसी कर गए होते|
लॉकडाउन की अचानक घोषणा: मजदूरों की विकट स्थिति
२३ मार्च की रात को लाक़डाउन घोषित किया गया, और केवल चार घंटे का समय दिया गया| हुक्मरानों को क्या यह पता नहीं था कि जो मजदूर पंजाब, दिल्ली, हरियाणा, सूरत, मुंबई आदि देश के अलग हिस्सों में काम कर रहे हैं , खेतों में काम कर रहे हैं वो बाहर पम्पिंग सेट , पशु पालन या खेत खलिहान में ही सो जाते हैं | तमाम रिक्शाचालक , फैक्ट्री मजदूर , दुकानों एवं रेस्टोरेंट आदि पर काम करने वाले भी वही पर सो जाते हैं| रेलवे प्लेटफोर्म या पुल के आसपास इधर उधर लाखों लोग सोते हुए मिल जाते हैं. इनके लिए लॉक डाउन का क्या मतलब है ? कुछ पैसे इनके पास थे , उससे कुछ गुजरा किया, कुछ समाज के लोगों के मदद किया और सरकार की तरफ से भी सहयोग दिया गया लेकिन अंत में आते-आते खाना भी मिलना बंद हो गया और रहने की समस्या भी विकट होती गयी | ऐसे में सैकड़ों हजारों किलोमीटर कि दूरी पैदल ही तय करने को मजबूर हुए| 27-28 मार्च को पूरी तस्वीर उभर कर आ गयी थी जब यूपी और दिल्ली कि सीमा पर लाखों मजदूर इकठ्ठा हुए थे. उसके बाद दवाब एवं समझा बुझाकर उनको वापस लाया गया | कुछ समय के लिए ये मजदूर रुक तो गए लेकिन सत्ता के अन्दर ही चोरी छिपे पैदल , रेल कि पटरी पर चलके और गाँव के अन्दर से रात में निकल गए|
सरकारी निष्क्रियता और मजदूरों की विवशता
पीएम केयर फण्ड खुला , इसमें हजारों करोड़ जमा हुआ ,विश्व बैंक से सहयोग मिला, सरकार के पास तो पैसा है ही उसका थोडा सा अंश भी इस्तेमाल किया गया होता तो ट्रेनों और बसों से इनको पंहुचा दिया गया होता मई कि शुरुआत में जो भी कारण रहा हो इनको भेजने का निर्णय लिया गया | कहते हैं कि भाजपा के अंदरूनी रिपोर्ट के अनुसार राजीनीतिक छवि पर असर पड़ने लगा इसलिए मजदूरों कि घर वापसी का फैसला किया गया| प्रक्रिया इतनी जटिल बनाई कि मजदूर के लिए तो लगभग असंभव था | मजदूरों से एप डाउनलोड और पंजीकरण के लिए कहा गया | हेल्प लाइन पर कोई फोन उठाने वाला नहीं है फिर भी दूसरों से सहारा लेकर कुछ पैसे खिलाकर इस प्रक्रिया को कुछ मजदूरों ने जैसे तैसे अंजाम दिया लेकिन ट्रेन के टिकट कि समस्या आ खड़ी हुयी| 2 मई को रेलवे ने सर्कुलर जारी किया कि राज्य सरकार मजदूरों से पैसा लेकर टिकट दे | बहुतों के पास तो था नहीं पर इधर उधर से जुगाड़ करके खरीद लिया | जब कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी ने कहा कि कांग्रेस उनके टिकट का भार उठाएगी तो बहुत बड़ा विवाद शुरू हो गया | इसके बावजूद भी सरकार के कान पर जूं नहीं रेंगी , लगता है जैसे कि मजदूरों से सरकार बदला ले रही हो|
आपातकालीन महामारी में निजीकरण की गतिविधियाँ
निजीकरण या औद्योगिक सुधार या श्रम कानून में परिवर्तन का कोई सम्बन्ध क्या कोरोना महामारी से राहत देने से है|यह समय तो इसके लिए बिल्कुल ही न उपयुक्त था और ना ही किसी तरह से समस्या समाधान का पूरक है|समझ लीजिये कि आरक्षण को निपटाने के मौके कि तलाश थी और इनको उन्होंने कर भी दिया| आर्थिक मदद करने के बजाय निजीकरण शुरू कर दिया | हवाई अड्डे का निजीकरण , सैन्य क्षेत्र में निगमीकरण का मतलब अंततः निजीकरण और सार्वजनिक उपक्रम की सभी कंपनियों में निजीकरण कि इजाजत एवं कोयला खदान का निजीकरण से दलित-आदिवासी-पिछड़ों का संगठित क्षेत्र की नौकरियां खत्म हो जायेंगी | सरकारी क्षेत्र में ही आरक्षण के जरिये नौकरी मिलती थी, वो रास्ता भी बंद कर दिया गया है| उत्तरप्रदेश और बिहार में मजदूर जमींदारों एवं साहूकारों के यहाँ काम करने के लिए मजबूर होंगे | जहाँ जाति- पात बढेगा. शहर कि तुलना में वेतन भी कम होगा, आमदनी भी कम होगी |दुनिया के और देशों में कोरोना से राहत के लिए मजदूरों के बैंक अकाउंट में सीधे राहत पॅकेज का 30.7 फीसदी दिया गया जबकि भारत में यह 0.7 फीसदी था |परिस्थितिवश और सवर्णवादी सत्ता दोनों कि मार से सबसे ज्यादा प्रभावित दलित , आदिवासी और पिछड़े ही होंगे|
( लेखक डॉ उदित राज पूर्व लोकसभा सदस्य और वर्तमान में कांग्रेस के राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं )