बहुजन राजनीति का अंत – डॉ. उदित राज
6 Nov. 2020
बहुजन राजनीति का अंत: बहुजन राजनीति के प्रारंभिक उद्देश्य:
बहुजन-राजनीति-का-अंत:नब्बे के दशक में बहुजन राजनीति का उभार उत्तरी भारत में हुआ | दलित एवं पिछड़े आन्दोलन को गति देने से सहयोग किये | आन्दोलन में भावना एवं अधिकार दोनों का मिश्रण था और इसमें कोई गलती भी ना थी . कभी ऐसी रणनीति बनानी पड़ती है ताकि जल्दी बड़ी संख्या में लोग जुड़ जाएं | “तिलक , तराजू और तलवार मारो इनको जूते चार ” ,” वोट हमारा राज तुम्हारा नहीं चलेगा”,” जिसकी जितनी संख्या भारी , उसकी उतनी भागीदारी ” नारे भावनात्मक रूप से एकजुट होने में बड़े काम आए| अधिकार के रूप में वायदा किया गया कि हम देने वाले बनना चाहते हैं |
चूंकि बड़े अधिकार कि प्राप्ति कि बात थी इसलिए लोगों ने सहयोग भी उसी अनुपात में दिया और तुरंत पाने की चाहत छोड़ दी| मिले अधिकार पर्याप्त न थे तभी तो हुक्मरान बनकर बड़ा लक्ष्य रखा|इस बड़े सपने के सामने वर्तमान अधिकार और योजना की चिंता से मुक्त कर दिया | रोजमर्रा की बाते महत्वहीन हक गईं| दिन- प्रतिदिन के आधार पर सड़क से संसद तक न लड़ा और न लड़ने दिया और अगर कोई लड़ना चाहा उसे बहुजन आन्दोलन विरोधी तक कहा और बहिष्कृत भी किया | कार्यकर्ताओं से कहा हुक्मरान बनने कि सोचो आरक्षण , शिक्षा , स्वस्थ्य एवं भागीदारी कि बात करना मांगने के सामान है |
बहुजन आंदोलन: सत्ता के बदले समझौते
आज़ादी के बाद कांग्रेस सैकड़ों प्रतिष्ठान , संस्थाएं , विभाग आदि का सृजन किया जिसमें दलित-आदिवासी कि भागीदारी हुयी | निजी संपत्तियों का राष्ट्रीयकरण किया . शिक्षा का भी भी सरकारी क्षेत्र में फैलाव और विस्तार हुआ | निजी बैंकों का राष्ट्रीयकरण हुआ , जमीन सुधार कानून के द्वारा भूमिहीनों और दलितों को जमीन का आबंटन किया गया , बिना फीस के शिक्षा , वजीफा, होस्टल आदि कि सुविधा मिली , आर्थिक रूप से सशक्तिकरण करने के लिए स्पेशल कंपोनेंट प्लान, ट्राइबल सब प्लान , अनुसूचित जाति-जनजाति अत्याचार निवारण कानून , कोटा- परमिट में भागीदारी , पद्दोन्नति में आरक्षण , खाली पदों पर भर्ती आदि दर्जनों सुविधाएँ-अधिकार मिले | उस दौर में दलित जागृति कम थी और व्यक्तिगत महत्वाकांछा न के बराबर थी |
जाती के आधार पर दल और संगठन न के बराबर थे, इस तरह से समाज इकट्ठा था |इस बड़े वोट बैंक के सहारे कांग्रेस दशकों तक सत्ता मे रही और बदले में उपरोक्त अधिकार और सुविधाएं दिए| कांशीराम जी ने इसे नकारा और दलित -आदिवासी जन प्रतिनिधियों को चमचा कहा | बार बार कहा कि कांग्रेस ने डॉ अम्बेडकर का अपमान किया | कांशीराम जी ने वही लक्ष्य सामने रखा जो डॉ अम्बेडकर का था लेकिन तरीका अलग था | बाबा साहब ने कदम कदम पर अधिकारों कि लड़ाई लड़ी | कांशीराम जी ने इसे सवर्णों के सामने हाथ फैलाना कहा | बाबा साहब जाति निषेध कि बात करते थे , कांशीराम जी जाति ध्रुवीकरण के जरिये वोट बैंक पैदा करना.
1998 में मलेसिया की राजधानी क्वालालंपुर में दलित सम्मलेन हुआ जिसमे काशीराम , रामविलास पासवान , फूलन देवी और मैं स्वयम भी शामिल था. उस सम्मलेन में काशीराम जी ने कहा था कि भारत में जातिवाद इतना ज्यादा बड़ा दूंगा कि सवर्ण चिल्लाने लगेंगे | काशीराम जी स्वयम संसद में आवाज़ उठाने में ज्यादा यकीन नहीं रखते थे | कभी कभार संसद में गए भी तो हाजिरी लगाकर निकल गए |सारा समय संगठन को देते रहे | उसी नक़्शे कदम पर मायावती भी चलती रही .
बसपा से सांसद –विधायक काफी संख्या में चुनकर गए लेकिन आरक्षण बचाने,निजीकरण के खिलाफ व संशाधनो में भागीदारी एवं व्यक्तिगत समस्या आदि को नहीं उठाया.हर समस्या का एक ही उत्तर कि हम सत्ता में आकर के सबका बदला एक ही बार में ले लेंगे| दलित कांग्रेस को छोड़े और वह कमजोर हुयी | बहुजन आन्दोलन ने अधिकार और भागीदारी कि बात नहीं कि , परिणाम आज सामने है कि नौकरियां लगभग ख़तम हो गयी, शिक्षा का निजीकरण हुआ | इससे समझा जा सकता है कि क्या खोया क्या पाया ?
4 जनवरी 2011 को लखनऊ हाई कोर्ट ने पदोन्नति से सम्बंधित मामले में आरक्षण के खिलाफ फैसला दिया जिससे सर्वाधिक हानि उत्तरप्रदेश के दलित कर्मचारियों का हुआ | इतनी लापरवाही हुई कि मुकदमा हारने का मतलब न था लेकिन नशा था हुक्मरानी का और अदम पैरवी में हार हुई। ज्ञात रहे कि परिसंघ ने 2006 में सुप्रीम कोर्ट में इस मामले की पैरवी करके जीता था |
बहुजन आंदोलन की वर्तमान चुनौतियाँ और सामाजिक ध्रुवीकरण
इसी फैसले की शर्तें पूरी करके हाई कोर्ट को जवाब देना था लेकिन मायावती को कहे कौन और हुक्मरानी का नाश जो था. समर्थक भी इसी भ्रम में थे |बिहार राजस्थान जैसे प्रदेशों ने सुप्रीम कोर्ट के निर्णय कि शर्ते पूरा कि और वहां क्षति नहीं हुयी | 2007 में अनुसूचित जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम को मायावती ने शासनादेश के द्वारा कमजोर कर दिया और परिसंघ इलाहाबाद हाई कोर्ट पहुंचा और यह कानून बाख सका| दलित समाज तड़क-भड़क , गाली- गलौज , भड़काऊ बातों में आ जाता है|
शुरुआत में तमाम दलित – पिछड़ी जातियों को जोड़ा | सब बराबर बैठे और धीरे धीरे दो कुर्सी लगने लगी तो जो समता मूलक समाज बनाने चले थे , उसके विपरीत चल पड़े. अन्य जातियों में सम्मान व अधिकार की भूंख जगा दिया और मिलकर बाटने की बात आई तो पलट गए| इससे बहुजन समाज में अनगिनत संगठन बन गए | एक बार सत्ता की भूख पैदा हो तो बुझाने की आस तो पैदा हो जाती है. एक भ्रांति और दूर कर देना चाहिए कि माना जाता है कि सपा व बसपा सोशल इंजीनियरिंग करते हैं जबकि वास्तव बीजेपी करती है|
2017 में उप्र में बीजेपी ने उन सारी जातियों को अपने ओर कर लिया जिसे सपा व बसपा में न कुछ मिल रहा था| बीजेपी का मुख्य उद्देश्य उसकी विचारधारा और प्रमुख पोस्ट अपने पास और थोड़ा थोड़ा दलित- पिछड़े जातियों में बाट देना | बहुजन जागृति की मूलमंत्र ही शोषित जातियों को अधिकार व सम्मान के लिए जगाना| दलित- पिछड़े अपने अपने जाती को ही रेवड़ी व पद बाटेंगे तो क्या होना था? ऐसी हालत में बर्बादी के लिए दुश्मन कि भी जरुरत नहीं है और आंतरिक द्वंद बर्बादी के लिए काफी हैं| उन जातियों की क्षति ज्यादा हुयी जिन्होंने इस आन्दोलन को खड़ा किया |
( लेखक डॉ उदित राज परिसंघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष, पूर्व लोकसभा सदस्य और वर्तमान में कांग्रेस के राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं }