बहुजन हिताय बनाम बहुजन राजनीति

बहुजन हिताय बनाम बहुजन राजनीति

बहुजन हिताय बनाम बहुजन राजनीति-डॉ. उदित राज

bahujan hitay

बहुजन हिताय बहुजन सुखाय का सन्देश गौतम बुद्ध ने दिया था। सामाजिक न्याय एवं मानवता के जो आन्दोलन रहे हैं, वो किसी न किसी रूप में इस विचारधारा से प्रभावित रहे हैं। ज्योतिबा फूले, शाहू जी महाराज एवं डॉ. अम्बेडकर आदि महापुरुषों के जो आन्दोलन रहे हैं उनपर इस विचार की छाप रही है। कांशीराम जी ने तो पार्टी का नाम ही बहुजन समाज पार्टी रख दिया। नाम अपने आप में बहुत कुछ कह देता है, लेकिन जिस तरह से कामकाज रहा उसमे मानवीय पक्ष ना के बराबर रहा। विचारधारा जब मानव कल्याण से अधिक व्यक्तिवाद एवं लक्ष्य प्राप्ति के लिए हो जाती है तो अन्दर से खोखला हो जाता है।

बहुजन राजनीति का विकास और जाति का प्रभाव

बहुजन राजनीति या बहुजन सामाजिक कार्य के वजह से बहुत संगठन खड़े हो गए। जाति की भावना बहुत बड़ा हथियार है लोगों को गोलबंद करने का। पहली बार 85 बनाम 15 की बात बहुप्रचारित हुई। 15 प्रतिशत सवर्णों के द्वारा शोषित एवं भेदभाव से पीड़ित लोग जुड़ते चले गए क्योंकि उन्हें लगा कि इससे न केवल अपनी हिस्सेदारी ले सकेंगे बल्कि बदला भी। इस बहुजन आन्दोलन में न कार्यकर्ता के कल्याण की बात हुई और न भागेदारी की। अर्धशिक्षित लोगों एवं युवाओं को ऐसी उत्तेजक एवं तीखी बातें ज्यादा आकर्षित करती हैं।

जातीय भावना और राजनीतिक मजबूती

भारतीय राजनीति में नकारात्मकता लोगों को जल्दी एकजुट करने का हथियार है। बिना मुस्लिम-इसाई के भारतीय जनता पार्टी की मजबूती कहाँ? बहुजन समाज पार्टी के लिए सवर्ण का होना जरुरी था और कुछ ऐसा ही सभी क्षेत्रीय पार्टियों के लिए है। न चाहकर भी ऐसा करना ही पड़ता है। दूसरी जाति के मुकाबले में खुद की जाति को गोलबंद करना आसान हो जाता है। नेतृत्व के लिए यह मार्ग सहज है और बदले कुछ करना भी नही पड़ता क्योंकि भावनात्मक रूप से जुड़े लोग काम-काज, विकास और अधिकार के आधार पर जुड़ते भी नही बल्कि खुद अपना समय और संशाधन लगाते हैं। मनोवैज्ञानिक रूप से जाति के लोग इस बात से संतुष्ट हो जाते हैं कि हमारी जाति एवं नेता का नाम तो हो रहा है। ऐसा वातावरण बनता है कि जनता स्वयं संगठन और नेतृत्व को समर्पित कर देती है। ऐसे हालत में शोषण को भी लोग अवसर और सम्मान समझते हैं।

सामाजिक न्याय और बहुजन की राजनीतिक चुनौतियां

बहुजन समाज पार्टी कि शुरुआत सवर्ण को सामने रख कर किया गया। कार्यकर्ता एवं समर्थक को कहा गया कि सत्ता के लिए काम करो। समर्थक तन-मन-धन से जुट गए। नारों में अधिकार देखने लगे एवं भाषण में सम्मान। भूल ही गए कि वर्तमान खराब हो रहा है। आरक्षण, शिक्षा एवं भागीदारी जैसे को गैर जरूरी समझा। यहाँ तक कह डाला कि आरक्षण की बात करना भीख मांगने के सामान है, हम तो सत्ता चाहते हैं। इससे कुछ पिछड़ी जातियों में जागृति पैदा हुई कि हमारी संख्या बल होने के बावजूद शासन –प्रशासन में भागीदारी नहीं है।

जिसकी जितनी संख्या भारी उसकी उतनी भागीदारी नारे में ही बहुत कुछ पा लेने का बोध हुआ। उत्तरप्रदेश में तमाम जातियां जैसे मौर्या, कुशवाहा, कुर्मी, पासी, चौहान, सैनी, राजभर, निषाद, मल्ल्लाह, पाल आदि इस नारे से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके और बसपा से जुड़े भी। जब पार्टी का कारोबार चल पड़ा तब आया भागीदारी का सवाल- चाहे मंच पर बैठने की बात हो, टिकट बंटवारे का सवाल हो या संगठन में समावेश करने का। ऐसा होता हुआ न दिखा तो दूसरा विकल्प खोजने लगे। कुछ ने अपनी पार्टी बना ली। ज्यादातर इस प्राप्ति से संतुष्ट हो गये कि दूसरे दल ने सांसद, विधायक और मंत्री बनने का मौका दिया। इस कमजोरी को भारतीय जनता पार्टी ने समझा और 2017 के उप्र के विस चुनाव में पूरा लाभ उठाया। बहुजन हिताय एवं बहुजन सुखाय इस बहुजन वादी राजनीतिक गतिविधि में ढूंढें नही मिलता।

बहुजन हिताय एवं बहुजन सुखाय के बिना बसपा खूब फूली फली। कार्यकर्ता का शोषण हुआ और उससे खूब काम कराया गया। दलित के साथ भेदभाव -अत्याचार, शिक्षा एवं नौकरी का सवाल हो, सबका एक ही जवाब कि जब हम सत्ता में आयेंगे तो देने वाले बनेंगे। दलित उपजातियों के संगठन खड़े कर दिए गए। जब इनके सपनो का महल टूटने लगा तो बगावत होने लगी और अंत में जातिवाद और बढ़ा। चले थे बहुजन जागृति करने लेकिन जाति जागृति तेज हो गई।

यह गलती तीन से चार दशक तक होती रही। बार-बार प्रचार करना कि सरदार पटेल ने ताकत लगा दी कि डॉ अम्बेडकर संसद न पहुच सके। कांग्रेस के नेता जरुर थे सरदार पटेल। नेतृत्व हमेशा गांधी- नेहरू के पास ही रहा। आजादी के पहले कि बात थी कि बाबा साहेब जोगेंदर नाथ मंडल के सहयोग से बंगाल से चुनकर संसद में आये। आज़ाद होने के बाद कांग्रेस के मदद से पुणे से चुनकर संसद में गए। गांधी जी की चाहत से कानून मंत्री का पद मिला औए संविधान निर्मात्री सभा के चेयरमैन बने। 1951 मे कांग्रेस से मतभेद होता है और मंत्रिमंडल से त्याग देते हैं। बहुजन समाज पार्टी ने इसको अपमान कह कर के प्रचारित किया जबकि यह मतभेद का मामला था। 1990 से पहले के ही सारे अधिकार का लाभ दलित -आदिवासी ले रहे थे हैं चाहे आरक्षण हो, खाली पदों पर भर्ती, बैंकों का राष्ट्रीयकरण, सरकारी कम्पनी को खड़ा करना, जमीन सुधार कानून, भूमिहीनों को भूमि, स्पेशल कंपोनेंट प्लान, दलित कानून, मुफ्त शिक्षा, कोटा-परमिट आदि। एक भी ऐसा अधिकार कोई बता दे जो बहुजन आन्दोलन से हासिल हुआ हो।

सवर्णों एवं कांग्रेस के खिलाफ नकारात्मक सोच से पार्टी मजबूत हुयी और जब देने कि स्थिति में थी तो भी समाज और कार्यकर्त्ता के लिए कुछ नहीं किया। कुछ दशक तक तो नकारात्मक सोच के आधार पर चला जा सकता है लेकिन अंत तो होना ही है कभी न कभी।यही कारण रहा कि बहुजन हिताय और बहुजन सुखाय के लिए जो किया जाना चाहिए था नहीं किया गया जैसे संसद और विधान सभा में लगातार मुद्दे उठाते रहना और निरंतर आंदोलन करते रहना। आरक्षण समाप्त होता रहा चुप रहे, निजीकरण पर खामोशी। परिणाम ये हुआ कि बहुत सारा मिला हुआ अधिकार छिन गया।

बिना व्यवाहरिकता एवं कल्याणकारी योजनाओं को केंद्र में रखे आन्दोलन का बुरा हश्र होना ही था।समर्थकों एवं जाति को जोड़े रखने के लिए अपने को 85 प्रतिशत वाला कहकर सन्देश देना जरूरी था। सामाजिक ताना – बाना में तथाकथित उच्च जाति के लोग मन से तो कभी नही जुड़ेंगे जबतक स्वार्थ न हो। दलितों की संख्या भारत मे 17 % है और जहां तहां जुटान ज्यादा है। उसमे उपजातियों में बटे हैं। अपने तरफ से पिछड़ों एवम अल्पसंख्यक को शामिल करने से कौन रोकता है लेकिन धरातल की सच्चाई कुछ और है। बहुजन हिताय तब होता जब पार्टी के अंदर सबको सम्मान व अधिकार दिया होता।

डॉ अम्बेडकर मुद्दे व अधिकार के लिए लड़ते थे। उन्होंने आलोचना जरूर शोषक जातियों का किया जब मौका मिला अधिकार के लिए अड़ गए और सफल रहे। संविधान निर्माण के समय जब सबका आरक्षण समाप्त हो रहा था तो लड़ पड़े। पहले मुस्लिम, ईसाई एवं कुछ और लोगों को मिलता था। तर्क दिया गया कि जब उनका खत्म हुआ तो दलित – आदिवासी का क्यों न हो? यह डॉ अम्बेडकर अड़ते हैं और अंत मे जीत हुआ। वो भी कह सकते थे कि अब हम देने वाले बनेंगे और आरक्षण क्या चीज है?

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