अपनी जाति का हो तो नायक नहीं तो और खलनायक – डॉ. उदित राज
10 July 2020
अपनी जाति के अपराधियों को हीरो मानने की सामाजिक प्रवृत्ति
खुद कि जाति का अपराधी नायक होता है और गैर जातियों का खलनायक | विकास दुबे कि भी यही कहानी है | विकास दुबे या उसके साथी जो भी काम अंजाम देते थे जाति के लोग गौरव महसूस करते |
यह मामला भिन्न है क्योंकि अपराध पुलिस के खिलाफ किया है| 8 पुलिसकर्मियों की हत्या के बाद भी सोशल मीडिया पर जाति बिरादरी के लोगों ने आदर्श मानने का प्रयास किया लेकिन कृत्य ही ऐसा था कि बहुत ज्यादा नही चल पाया | यह केवल ब्राह्मणों पर ही लागू नहीं होता | लगभग सभी जातियों कि मानसिकता ऐसी ही है|
मुलायम सिंह जी जब मुख्यमंत्री थे तो पश्चिम उप्र महेंद्र फौजी का एनकाउंटर हुआ तथा, जाति के लोग इतना नाराज़ हुए की वोट नही दिया । मायावती की सरकार में ददुआ मारा गया तो जाति ने वोट न देकर बदला लिया।कुछ कार्य घृणित और अपराधिक किस्म के होते हैं, ऐसी परिस्थिति में कोई भी कृत्य हो कमोवेश उसकी निंदा होती है| कुछ काम ऐसे होते हैं जो ज्यादा निंदनीय नहीं होती तो वहां पर जाति स्वागत करती है |
अपराध और राजनीति में जातिगत समर्थन का प्रभाव
सामाजिक मूल्य बदलते रहते हैं और उसी के अनुसार कायों का किस्म भी निम्न और उच्च होता जाता है| जाति जब राजनीति में कार्य करती है, उसे बुरा नहीं माना जाता | मनुस्मृति के जमाने में जब शूद्र कि हत्या या दुर्व्यवहार किया जाता था तो उस समय का सामाजिक मूल्य इसको सामान्य बात मानते थे|
80 के दशक के बाद अपराधी सीधे राजनीति में आना शुरू कर दिये| राजनितिक दलों ने देखा अपराधियों के पीछे उनकी जाति का समर्थन अच्छा ख़ासा है, तो क्यूँ नहीं उनको ही सांसद या विधायक बनाया जाय| ऐसा नहीं कि ये पहली बार हो रहा था इसके पूर्व अपराधी परदे के पीछे से राजनीति को प्रभावित करते थे |
70 और 80 के दशक अबतक सबकी स्मृतियों में कैद है जब बिहार में सैकड़ों कि संख्या में दलितों को मौत के घाट उतार दिया जाता था |लक्ष्मणपुर से लेकर बाथे तक बिहार दर्जनों नरसंहारों का साक्षी रहा है| भूमिहार जाति से जुडी रणवीर सेना इस कार्य को अंजाम देती थी जिसको बिरादरी तन मन और धन से सहयोग करती थी |
दिल्ली तक से जाति के लोगों का चंदा जाता था |सेना के नेता ब्रह्मेश्वर मुखिया को बिरादरी ने अपना गौरव मान लिया था| ब्रह्मेश्श्वर मुखिया कि हत्या के बाद पटना कि सड़क पर जिस तरह से इस जाति के लोगों ने तांडव मचाया था वो कई दिनों तक मीडिया में छाया रहा था |
जाति एक ऐसा यथार्थ सत्य है जो व्यापार , न्यायपालिका , शादी-विवाह सबमे प्रभाव छोडती है | उदाहरण के तौर पर इसे ऐसे समझा जा सकता है कि बड़ा ठेकेदार अपने ही जाति के लोगों को काम देता है| वैश्य समाज बिरादरी में ही तिजारत करने कि प्राथमिकता रखते है | कई ऐसे व्यावसाय हैं जिसमे किसी दूसरी जाति को घुसने भी नहीं देते हैं, हाँ कुछ अपवाद हो सकते हैं|
न्यायिक प्रक्रिया में जातिवाद की छाया
विकास दुबे का कृत्य घृणित और अपराधी है लेकिन कुछ ऐसे विषय हैं जिसमे जातिवाद को स्वीकृति प्रदत्त है| सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के जातिवादी ढाँचे से बेहतर कोई उदाहरण नहीं हो सकता कि जहाँ एक विशेष बिरादरी के ही लोग बहुतायत में हैं | जब जाति योग्यता का मापदंड बन जाय तब शैक्षिक योग्यता गौण हो जाती है|सबसे दिलचस्प ये है कि जज बनने के लिए ना ही कोई लिखित परीक्षा है न कोई साक्षात्कार इससे जाति के लोगों का चुनाव करना बेहद आसान हो जाता है |
विकास दुबे द्वारा किये गए हमले में में 8 पुलिसवाले मारे गए और कुछ घायल हैं. चूंकि यह मामला पुलिसवालों कि सामूहिक हत्या से जुड़ा था इससे मामला बड़ा संवेदनशील हो गया है वरना ऐसे अपराध माफिया करते ही रहते हैं | सही मायने में विकास दुबे संगठित अपराध कि दुनिया कि बहुत ही छोटी मछली है अभी भी उत्तर प्रदेश और बिहार में इससे सौ गुना ज्यादा संख्या में ऐसे अपराधी मौजूद हैं, जो खुद अपराध न करके करवाते हैं | उनका प्रभाव इतना बड़ा है कि सांसद ,विधायक और मंत्री हैं जबतक उनका इलाज नहीं होता तो छोटे – मोटे विकास दुबे जैसे गुर्गे जहाँ-तहां सक्रीय होते रहेंगे |
अपराधी या गुंडे पनपते और बढ़ते ही इसलिए हैं क्यूंकि इनके पीछे तंत्र का समर्थन होता है , अपवाद को छोड़कर शायद ही कोई दलित माफिया हो सकता है इसके पीछे कारण यह है कि दलित जाति के लोगों को सत्ता, न्यायपालिका और पुलिस का संरक्षण नहीं है | अपराध करने वाले अधिकतर सवर्ण/दबंग जातियां हैं लेकिन सजा और जेल काटने वालों कि संख्या दलित- अल्पसंख्यक- आदिवासी- मुसलमान – पिछड़ों कि ज्यादा है| विकास दुबे कि घटना संवेदनशील इसलिए बन गयी थी क्यूंकि उसने पुलिस पर हाथ डाला | पुलिस के बदले अगर विकास ने दलित /आदिवासी का नरसंहार किया होता तो मीडिया इतना तूल नही देती|
अपराध जगत में जाति का तो समर्थन मिलता ही है लेकिन उससे कहीं जयादा मीडिया में जाति का स्वरुप मजबूत दिखता है| विकास दुबे को शायद ही किसी न्यूज चैनल ने आतंकी कहा होगा , वहीँ अगर कोई दलित/आदिवासी/पिछड़ा/ मुसलमान होता तो पता नहीं मीडिया किन किन उपाधियों से विभूषित कर चुकी होती| ऑक्सफेम इंडिया ने दलित और आदिवासी कि मीडिया कि मुख्यधारा में स्थिति का अध्ययन किया तो पाया स्थिति बहुत ही ख़राब है |121 न्यूजरूम में सम्पादक ,प्रबंध सम्पादक , ब्यूरो चीफ , इनपुट-आउटपुट एडिटर , पत्रिकाओं में से 106 सवर्ण कि उपस्थिति 5 पिछड़े और 6 अल्पसंख्यक मिले | हर 4 में 3 हिंदी चैनल में और अंग्रेजी चैनल में सवर्ण का अधिपत्य रहा (हिंदी में 40 इंग्लिश में 47 लोग)जिसमे एक भी दलित आदिवासी और पिछड़ा नहीं है थे| 15 साल के दौरान 373 फांसी कि सजा पाने वालों का अध्ययन किया गया जिसमे 93.5 % दलित- अल्पसंख्यक हैं|
जातिअपने नज़रिए से ही अपराधी को देखता है. अगर अपराधी अपनी जाति का व्यक्ति होगा तो नायक होगा, अगर दूसरी जाति का हुआ तो खलनायक | हत्या पुलिस की न कि होती तो जाति का नायक बना रहता|अब तो एनकाउंटर में मारा गया है , बिरादरी का हीरो शायद ही बन पाएगा. सत्ता जब हिलने लगती है तो पकड़ मजबूत बनाये रखने के लिए कभी कभी अपनो को भी बलि देने पड़ता है| इस कृत्य से जनता की नज़र मे सत्ता पर माफिया का प्रभाव दिखा , फिर से विश्वाश प्राप्त करने के लिए एनकाउंटर बेहतर उपाय लगा | कानून के अनुसार सजा देने से भी विश्वास खो रहे थे|पहले से मुख्यमंत्री ने अपनी छवि अपराध मुक्त बनाने की बना रखी थी, उससे भी निपटना था |
( लेखक डॉ उदित राज परिसंघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष, पूर्व लोकसभा सदस्य और वर्तमान में कांग्रेस के राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं )