जाति: एक अमिट सच्चाई
हॉकी खिलाड़ी दलित वंदना कटारिया के परिजन को अपमानित किया कि वो मैच हरवा दिया जबकि हॉकी में उसका श्रेष्ठ प्रदर्शन था। अगर सवर्ण की बेटी होती तो पूरे जाति के लिए गौरव की बात होती। कांस्य पदक कोई छोटी उपलब्धि नही है। पी. वी. सिंधु और लावलीना जब संघर्ष कर रहे थे ओलिंपिक खेल में मेडल पाने के लिए, इधर लोग संघर्ष कर रहे थे कि ये कौन जाति के हैं। अगर जाति के नही हैं तो भीतर से कितना सदमा लगता है लेकिन खुशी तो मनाना ही पड़ता है क्योंकि समाज का दबाव रहता है। प्रथम बार जब पी. वी. सिंधु ने अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अच्छा खेली थी तब भी अधिकतम खोज गूगल पर उसकी जाति के बारे में हुई थीं। टेक्नोलॉजी को कोई झुठला नही सकता वर्ना इस सच्चाई को भी झुठला दिया जाता। कहा जाता कि क्या अतीत की बात करते हो ! वो जबाना गुजर गया।
इतिहास की छाया में जातिवाद
भारत के पिछड़ेपन का सबसे बड़ा कारण जातियों में बंटा होना है। भारत एक भी जंग बाहर के आक्रमणकारियों से जीत नही पाया। दोष हम देते हैं आक्रांताओं को लेकिन आंतरिक कारण को नही स्वीकारते। जनतंत्र के पहले यह सब जगह रह है जो कामजोर थे उनको दबाया गया। जब भारतीय समाज टुकड़ो में बंटा था तो कोई क्यों नही लाभ उठाएगा? सिंध के राजा दाहिर को 712 में मोहम्मद बिन कासिम को हरा न पाता अगर भीतरघात न हुआ होता। लार्ड क्लाइव की छोटी सी सेना प्लासी में युद्ध किया तो आसानी से जीत गया। जब वो समुद्री जहाज से उत्तरा और रास्ते मे देखा कि यहां लोगों की जनसंख्या बहुत है। एक समय सेना डर भी गई अगर लोग ईंट व पत्थर उठा लिए तो उनका क्या होगा? होना क्या था लोग तो जातियों में बटे तमाशा देख रहे थे जैसे कहार का काम मिट्टी का बर्तन बनाना, नाई का बाल काटना, धोबी का कपड़ा धोना और इस तरह सब अपने अपने जाति के पेशे तक सीमित रहे। एक जाति की जिम्मेदारी थी लड़ने और रक्षा करने की। दूसरी जातियां मूकदर्शक बनी रही या तो आक्रांताओं के साथ जा मिले। जब यहां कोई पूछा नही या अपने ही हुक्मरानों ने तिरस्कृत किया तो आक्रमणकारियों ने पुचकारा और साथ लिया।
समाजिक प्रभाव और आधुनिक परिणाम
दिल्ली कैंट में 9 वर्ष की दलित बेटी का रेप और हत्या हो गई। हत्यारों को भय इसलिए नही हुआ कि दलित की जान की कीमत ही क्या है? ज्यादातर ऐसे मामले दब भी जाते हैं। जाति से जितना क्षति इस देश की हुई उतना किसी और वजह से नही। राजनीति जाति भावना से कहीं प्रेरित है बजाय किसी अन्य कारणों से। भले लोग 5 साल परेशान रहें लेकिन जब चुनाव आता है तो ज्यादातर लोग जाति के आधार पर ही वोट देते हैं। जब जाति की ताक़त है भावना के आधार पर मिलती रहे तो विकास की चिंता क्यों करें प्रतिनिधि।
जाति एक पागलपन का मनः स्थिति है। सभी इंसान एक ही तरह से पैदा होते हैं और हाड़ -मास एक जैसा है। इसके बावजूद जाति के आधार पर एक दूसरे से नफरत। अगर भारत के समाज मे यह दीमक न लगा होता तो चीन, साउथ कोरिया, जापान, अमेरिका, यूरोप जैसा विकसित हमारा भी देश हुआ होता। राजनीति ही नही बल्कि आर्थिक क्षेत्र में भी इस पागलपन से बहुत छति हुई है। जिन हाथों ने काम किया उसे नीच कहा गया। लोहे का काम करने वाले को लोहार तक सीमित कर दिया न कि इंजीनियर बनने दिया। 1847 में पहला सिविल इंजीनियरिंग कॉलेज रुड़की में खुला। उसके पहले एक भी प्रमाण कोई दिखाए की सिविल इंजीनियरिंग, मेकेनिकल इंजीनियरिंग, मेटलर्जिकल एंड मैटेरियल्स इंजीनियरिंग जैसे विषय पढ़ाया गया हो या कोई अनुसंधान हुआ हो। जिन देशों जाति नही है वहां ही अनुसंधान और तकनीक का इजात हुआ। इन क्षेत्रों में जिन लोगों ने परिश्रम किया तो उनको नीच या अछूत न कहकर बल्कि प्रोत्साहित किया, इंजीनियर या टेक्नोक्रैट कहा गया। वहां की हुक्मरानों ने भी समर्थन किया। इससे प्रेरित होकर परिश्रम और दिमाग दोनों लगाया और समयांतराल वो इंजीनियर, वैज्ञनिक और टेक्नीशियन बनें। हमारे यहां अछूत और पिछड़े ही रह गए।
किसी भी क्षेत्र को लें तो देखेंगे कि वर्ण व्यवस्था का प्रतिकूल असर पड़ा है। भारतीयों के शारीरिक स्वास्थ्य कमजोर है। तथा कथित अभिजात्य वर्ग शारीरिक परिश्रम से दूर रहा और निम्न वर्ग को लोगों के पास खाने को नही था। दोनों का मांस पेशियां कमजोर हो गईं। छोटे -छोटे देश ओलंपिक में दर्ज़नो गोल्ड मेडल जीत लेते हैं और इधर 135 करोड़ की आबादी वाले देश का क्या दुर्गति है?
इंसान समय व परिस्थिति के साथ परिवर्तन करता रहता है। यह सत्य हमारे समाज के लिए भी लागू होता है। एक ऐसी बात है जो परिवर्तित नही होती वह है जाति। अमेरिका में बसें भारतीयों में भी भयंकर जातिवाद है। वहां दलित और पिछड़े सवर्ण बॉस के अंदर काम नही करना चाहते।
जाति ही सत्य है और शेष परिवर्तनशील। लोग धर्म और देश बदल सकते हैं लेकिन जाति लेकर जाते है। जो अपने को राष्ट्रवादी कहते उनमें ज्यादातर कट्टर जातिवादी होते हैं। अपवाद छोड़ दें तो सबकी मनः स्थिति एक जैसी है। कुछ भीड़ के दबाव में जाती की सत्यता को नकारते हैं। वोट बहुत बड़ा कारण जो जाती को ऊपरी सतह से नकारता है। मुस्लिम की उपस्थिति भी असुरक्षित करती है तो दिखाए के लिए सब हिन्दू हैं, कहना पड़ता है। किसी भी नेता, व्यापारी या साधन संपन्न व्यक्ति के टीम पर नज़र डालें तो पता लगा जाएगा कि उसकी जाति -बिरादरी वाले ही भरे पड़े मिलेंगे कुछ अपवाद को छोड़कर। जो राष्ट्रप्रेम दूसरे समाज मे है यहां असंभव है। जब जाति शाश्वत है तो राष्ट्रीय भावना से टकराएगी। इस टकराव में जीत उसी की होती रहेगी जो शाश्वत और ताक़तवर है। भगवान गौतम बुद्ध जाति उन्मूलन का महान आंदोलन किया और सफलता मिली लेकिन स्थाई न हो सकी। दलित जातिवाद के शिकार हैं लेकिन इनमें भी जातिवाद और छुआ छूत कम नही है। डॉ बी आर अम्बेडकर जाति का निषेध के लिए संघर्ष किये लेकिन उनके अनुयाई कम जातिवादी नही है। फर्क यह कि पिछड़ी जातियां जातिवाद के कारण घाटे में हैं और तथा कथित सवर्ण के लिए ये मुनाफे का सौदा रहा है। जाति प्रेम के बाद ही और सब है।
(लेखक पूर्व आईआरएस व पूर्व लोकसभा सदस्य रह चुके है, वर्तमान में कांग्रेस के राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं | )