कल्याणकारी राज्य की वापसी- डॉ. उदित राज
29 Oct. 2020
निजीकरण के दौर में कल्याणकारी राज्य की आवश्यकता
अमेरिका एवं यूरोप की सम्पन्नता और सुविधाएं देखकर भारत का अभिजात्य वर्ग बड़ा प्रभावित होता रहा है जिसका परिणाम ये हुआ कि निजीकरण , उदारीकरण कि ओर हम चल पड़े | ये तथाकथित बुद्धिजीवी एवं व्यापारी सोचे कि उनकी नक़ल करके हम भी वैसे हो जायेंगे जबकि परिस्थितियों कि तुलना नहीं की| यूरोपीय देशों में औद्योगिक क्रान्ति सत्रहवीं-अठारवी शताब्दी में हो चुकी है और आज भी उस दौर की तुलना में कुछ मायनों में हम उनसे पीछे हैं |
यूरोप में सुधारवाद , औद्योगीकीकरण एवं जनतंत्र सत्रहवीं एवं अठारवीं शताब्दी में जड़ें जमा चुकी थी| वहां के विद्रोही एवं व्यापारी अमेरिका में बड़ी संख्या में गए तो उनकी सोच भी साथ गयी| 1917 में रूसी क्रांति के बाद यूरोप और अमेरिका भयभीत हुए और इसलिए राज्य के चरित्र में तेजी से बदलाव आया |
साम्यवादी विचारधारा के खतरे से बचने के लिए इन देशों के राज्य के चरित्र बदले जिन्हें हम कल्याणकारी कहते हैं| बिहार में इस समय विधानसभा चुनाव हो रहा है| तेजस्वी यादव ने दस लाख सरकारी नौकरी देने का वायदा करके राज्य को कल्याणकारी बनाने का प्रयास किया है|
मोदी राज में निजीकरण: कल्याणकारी राज्य का क्षरण
2014 में भाजपा की सरकार केंद्र में आई और अंधाधुंध अमेरिका और यूरोप के विकास मॉडल पर चल पड़े | वहां पर अभी तक चीजें निजी क्षेत्र में हैं और राज्य धीरे- धीरे अपना कल्याणकारी स्वरुप खो बैठे हैं | 60-70 के दशक में रोटी, कपडा, मकान , शिक्षा, स्वस्थ्य आदि देने का कार्य सरकार का होना चाहिए ऐसी मांगे हुआ करती थी | 90 के बाद बदलाव आना शुरू हुआ और मोदी राज में तो लगा ही नहीं कि राज्य को कल्याणकारी होना चाहिए |
शिक्षा और स्वास्थ्य को निजी क्षेत्र में धकेला और सरकारी शिक्षण संस्थाएं कमजोर हुयी | स्वाश्थ्य के मामले में भी कुछ ऐसा नजरिया रहा रोजगार के मामले में सरकार ने बिल्कुल ही पल्ला झाड लिया और इसे अनावश्यक सरकार के ऊपर बोझ मान लिया | मीडिया , बुद्धिजीवी और सरकार के अनोखे गठजोड़ से माहौल बनाया गया कि हजारों एवं लाखों कर्मचारियों-अधिकारियों पर सरकार खर्चा करती है | क्यों नहीं इसे खत्म कर दिया जाय |
तमाम तरीके निकाले गए जैसे निजीकरण , विनिवेश , आउट्सोर्सिंग , ठेकेदारी आदि और दूसरी तरफ वी आर एस एवं सी आर एस की तमाम योजनायें लायी गयी | कर्मचारी –अधिकारी सेवानिवृत होते रहे और दूसरी तरफ नई भारतीयों के रास्ते बंद कर दिए गए| इस तरह से सरकार काफी हद तक गैर कल्याणकारी होती गयी जैसे यूरोप और अमेरिका में है| देखने कि बात है कि क्या दोनों समाजों की परिस्थितियाँ सामान हैं या भिन्न |
बिहार चुनाव और रोजगार के वादे: भारतीय समाज में व्यापक प्रभाव
बिहार के चुनाव में दस लाख नौकरी देना मुद्दा बना जो शायद कभी-कभार होता है इसका परिणाम केवल बिहार में ही नहीं दिखेगा बल्कि पूरे देश में दिखेगा | अगर , बिहार के लोगों ने इस मुद्दे पर मतदान किया तब ऐसा देखने को मिल सकता है| यूरोप और अमेरिका के देश स्वस्थ्य , शिक्षा, रोजगार आदि से पल्ला झाड सकते हैं चुकी वहां उतनी असमानता नहीं है |
हमारे यहाँ जाति व्यावस्था है और अभी भी बड़े आबादी के हिस्से को आज़ादी नहीं है कि वह किसी भी व्यापार और पेशा को जब चाहे अपना ले या छोड़ दे | दूसरी बात ये है कि उन देशों में धन एक ही पीढ़ी के लिए कमाया जाता है और अपवाद को छोड़कर के दुनिया से विदा होने के पहले लोग अपनी धन सम्पत्ति को खत्म कर चुके होते हैं या सामजिक कार्य में लगा देते हैं या दान दे देते हैं| इसके विपरीत हमारे यहाँ सात पीढी के लिए धन कमाया जाता है |
अतः समाज के बड़े हिस्से तक नहीं पहुच पाता है. हमारे यहाँ व्यक्ति स्वर्ग में जगह बनाने के लिए धन व्यय करेगा या आने वाली पीढी के लिए इसलिए जितना ज्यादा हो कभी पूरा नहीं हो पाता | कभी दूसरों को देने या छोड़ने के लिए नहीं हो पाता |
जातीय व्यवस्था और सामाजिक न्याय में बाधाएँ: वितरण में असमानता
जातीय एवं सामाजिक व्यवस्था ने उदारता के लिए बहुत कम जगह छोड़ा है | एक जमीदार के पास सौ एकड़ जमीन अगर है तो न स्वयम मेहनत करेगा और ना ही भूमिहीन दलित या गरीब को उचित मजदूरी/ अधिया/ बटाईदारी देते हैं | जातीय भावना धन और संसाधन के सामान वितरण में हजारों वर्ष से पक्षपाती रही है| चाहे स्वयं कि हानि क्यों न हो अगर उससे कथित रूप से उनसे निम्न जाति का हो तो उसे खुशहाल नहीं देखना चाहेंगे | यह सोच केवल ग्रामें क्षेत्र तक ही सीमित नहीं है बल्कि इसकी बानगी कोर्पोरेट में भी देखी जा सकती है| ऐसी परिस्थियों में राज्य का हस्तक्षेप न रहे तो करोड़ों युवा बेरोजगार तो होंगे ही |
पकौड़ा तलना एक रोजगार है तो दलित आदिवासी के लिए यह भी अवसर तो नहीं है| जैसे ही पता लगेगा कि दलित, अछूत या कथित रूप से निम्न जाति का है उनका बहिष्कार हो जाएगा| बौद्धिक एवं सामजिक सम्पदा जिसके पास हजारों वर्ष तक नहीं रही उसके उत्थान और भागीदारी से सरकार हाथ खीच ले तो उनका विकास कैसे संभव है | वास्तव में बिना कहे करना तो यही चाहते हैं कि हजारों वर्ष से दलित पिछड़े शासन –प्रशासन और संसाधन में भागीदार न बन पायें|
महामारी के दौरान निजीकरण की विफलताएँ और सरकारी हस्तक्षेप की आवश्यकता
कोरोना महामारी से सबक लेने की जरुरत है कि निजी अस्पतालों ने किस तरह से मरीजों को लूटा है और लोगों को महसूस करा दिया कि सरकारी स्वस्थ्य व्यवस्था के बगैर इलाज संभव ही नहीं है. जो रेलवे प्लेटफार्म टिकट दो रूपये का था उसको पचास रूपये का कर दिया गया| अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर तेल की कीमत कौड़ियों के भाव है लेकिन यहाँ कीमत आसमान छु रही है|
किसानों को अपने उत्पाद का कितना कम मूल्य मिल रहा है , शिक्षा कितनी महगी हो गयी है| जब पूरे देश में अर्थव्यवस्था चौपट हो तो बड़े पूंजीपतियों के लाभ में बड़ा उछाल आया |
जिन सेवाओं से सरकार ने पल्ला झाड़ा और निजी क्षेत्र को दिया महगा होता गया | भारत को आज़ाद हुए साठ दशक ही हुए इसलिए अभी दशकों तक राज्य को जीवन के तमाम उपयोगी या आवश्यकताओं को पूरा करने में हस्तक्षेप करना पड़ेगा | आने वाले चुनाव में रोजगार , शिक्षा , स्वास्थ्य मुद्दा बने ऐसी संभावनाएं दिखती हैं| अगर बिहार के चुनाव पर नज़र डालें और दस नवम्बर को और स्पष्टता आ जानी चाहिए|